घातक बीमारी है ‘थैलेसीमिया’ जिसका नहीं है इलाज, जानें इसके लक्षण, बचाव


लाइफस्टाइल डेस्क: यह बच्चों को माता-पिता से आनुवांशिक तौर पर मिलने वाला रक्त रोग है। इसके होने से शरीर में हीमोग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया गड़बड़ हो जाती है और रक्त बनना बंद हो जाता है। इस बीमारी की पहचान तीन महीने की उम्र से होने लगती है। इस बीमारी में बच्चे के रक्त में भारी कमी होने लगती है। बच्चे की जान बचाने के लिए उसे बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। 

थैलेसीमिया दो प्रकार का होता है:- 

1- मेजर थैलेसीमिया - जिन माता-पिता दोनों की जींस में थैलेसीमिया होता है, यह बीमारी उन बच्चों को होती है। मेजर थैलेसीमिया काफी घातक हो सकता है। अगर माता-पिता दोनों के क्रोमोज़ोम्स खराब हो जाएं, तो यह मेजर थैलेसीमिया बन जाता है। इस स्थिति में बच्चे के जन्म के 6 महीने बाद ही शरीर में खून बनना बंद हो जाता है और उसे बार-बार खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है। 
2- माइनर थैलेसीमिया - जिन माता-पिता में किसी एक को थैलेसीमिया होता है, उनके बच्चे को मेजर थैलेसीमिया की संभावना नहीं रहती। 
बच्चे के 3 महीने के होने के बाद इस रोग की पहचान हो सकती है। इसमें शरीर में तेज़ी से खून की कमी होने लगती है। कुछ बच्चों में ये लक्षण पहले दो वर्षों के बाद विकसित हो सकते हैं। दरअसल, यह थैलेसीमिया की गंभीरता पर निर्भर करता है। थैलेसीमिया प्रभावित रोगी की अस्थि मज्जा (बोन मैरो) रक्त की कमी की पूर्ति करने की कोशिश में फैलने लगती है। इससे सिर और चेहरे की हड्डियां मोटी और चौड़ी हो जाती हैं और ऊपर के दांत बाहर की ओर निकल आते हैं। वहीं लिवर एवं प्लीहा आकार में काफी बड़े हो जाते हैं। 

थैलेसीमिया के लक्षण:

– सूखता चेहरा
– लगातार बीमार रहना
– वज़न न बढ़ना
– चिड़चिड़ापन
– भूख न लगना
– सामान्य विकास में देरी

इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थैलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे ज़्यादा से ज़्यादा रक्त की ज़रूरत बढ़ती जाती है। बाहरी रक्त चढ़ाने और दवाइयों की आवश्यकता पूरी न होने के कारण इन बच्चों की 12-14 वर्ष में ही मृत्यु हो जाती है। अगर इलाज ठीक से होता है, तो 25 वर्ष और उससे अधिक जीने की उम्मीद होती है। 

इससे बचाव के लिए:

– समय पर दवाइयां दें और रक्त चढ़ावाएं।
– प्रेग्नेंसी के दौरान ही इसकी जांच करवा लें।
– आजकल शादी से पहले ही लड़का-लड़की के रक्त की जांच होती है।
– मरीज़ का हीमोग्लोबिन 11 या 12 तक बनाए रखने की कोशिश करें। 

इस रोग का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। हीमोग्लोबीन दो तरह के प्रोटीन से बनता है- अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलीसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है, जिसके कारण लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होती हैं। रक्त की भारी कमी होने के कारण रोगी के शरीर में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की कमी से हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता है एवं बार-बार रक्त चढ़ाने के कारण रोगी के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय, यकृत और फेफड़ों में पहुंचकर प्राणघातक होता है। 

रिसर्च:

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत में हर वर्ष सात से दस हजार थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों का जन्म होता है। केवल दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ही यह संख्या करीब 1500 है। भारत की कुल जनसंख्या का 3.4 प्रतिशत भाग थैलेसीमिया ग्रस्त है। 

रिश्ते से पहले मेडिकल प्रोफाइल की मांग अब लोग सहजता से स्वीकार रहे हैं। बहुत से परिवारों में लड़के ही नहीं, लड़की के घर वाले भी अब मेडिकल सर्टिफिकेट देखकर ही रिश्ता तय कर रहे हैं। लड़का अगर विदेश में रहा हो, तो मेडिकल प्रोफाइल की डिमांड और ज्यादा बढ़ जाती है। भविष्य में पति-पत्नी को मेडिकल समस्या से बचाने और होने वाले बच्चों की अच्छी हेल्थ के लिए डॉक्टर भी मेडिकल प्रोफाइल चेक करने की सलाह दे रहे हैं। 
एड्स और कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों की तुलना में शादी के लिए सबसे ज्यादा जेनेटिक बीमारियों के टेस्ट होते हैं। छत्तीसगढ़ में शादी के पहले सिकलसेल और थैलेसीमिया के टेस्ट सबसे ज्यादा कराए जाते हैं। एचआईवी का टेस्ट भी लोग करवा रहे हैं, लेकिन सिकलसेल और थैलेसीमिया की तुलना में इनकी संख्या बेहद कम है। वहीं, कुछ लोग हेपेटाइटिस बी और डायबिटीज जैसी बीमारियों के टेस्ट भी कराते हैं।पंडितों के कहने पर बहुत से लोग ब्लड ग्रुप टेस्ट भी शादी से पहले करा रहे हैं। हालांकि, डॉक्टर्स इस टेस्ट को यूजलेस मानते हैं।

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